भोपाल में दो-तीन दिसंबर 1984 की वह काली रात विश्व इतिहास की सबसे भयावह औद्योगिक त्रासदी लेकर आयी।यूनियन कार्बाइड के प्लांट से जहरीली गैस मिथाइल आइसोसायनाइड का रिसाव हुआ।शासन के रिकॉर्ड अनुसार लगभग 5295 नागरिकों,बच्चों,महिलाओं, बुजुर्गों,युवाओं की मृत्यु हुई। सरकार ने इस संख्या को स्वीकार कर मुआवजा दिया है।उस समय मध्य प्रदेश शासन के ही रिकॉर्ड में 15 हजार मृत्यु दर्ज हैं।हजारों मूक पालतू पशुओं की जान चली गई।अपार जन,धन,पशु हानि हुई है।भूमिगत जल भी अभी तक विषाक्त है। यह जहरीली मिथाइल आइसोसायनाइड गैस द्वितीय विश्व युद्ध के समय हिटलर ने गैस चैंबरों में उपयोग की थी।दुश्मन देशों के सैनिकों को बंद करके मृत्यु दंड दिया।हिटलर ने अमानवीयता की पराकाष्ठा की थी। यह दुर्घटना सरकारी लापरवाही की पराकाष्ठा थी। संसार की सबसे भयानक औद्योगिक त्रासदी का स्मरण आते ही 40 साल बाद भी शरीर का रोम-रोम काँप जाता है।इस घटना में हुई लापरवाहियां और तत्कालीन केंद्र और राज्य सरकार की भूमिका पर अनेक ज्वलंत प्रश्न सदैव खड़े हैं।संसद में भी पूर्व विदेश मंत्री स्वर्गीय सुषमा स्वराज ने नेता प्रतिपक्ष के रूप में केंद्र की राजीव गांधी सरकार एवं राज्य की अर्जुन सिंह सरकार पर अनेक प्रश्न उठाये थे।आज भी गैस पीड़ितों उनके परिजनों के यह यक्ष प्रश्न हैं।
रहवासी क्षेत्र में स्वीकृति
अमेरिका की कंपनी यूनियन कार्बाइड भारत में कीटनाशकों के व्यापार के लिए सन 1969 में यूनियन कार्बाइड ऑफ़ इंडिया नाम की कंपनी का गठन करके भोपाल में औद्योगिक स्थापित करती है। इसमें मिथाइल आइसोसायनाइड गैस अमेरिका से आयातित की जाती थी। इसका प्रयोग कर कीटनाशक बनाए जाते थे। वर्ष 1970 में इस कंपनी ने मिथाइल आइसोसायनाइड गैस को भोपाल में ही अपने प्लांट में बनाने के लाइसेंस हेतु सरकार को आवेदन किया।सरकार ने आवेदन को लंबित रखा,अनुमति नहीं दी।1975 में आपातकाल लगने के बाद इस कंपनी को जहरीली गैस निर्माण करने की अनुमति दी जाती है। प्रश्न उठता है कि पाँच साल बाद आपातकाल में किसके कहने पर कंपनी को अनुमति दी गई?भोपाल के लाखों नागरिकों की जान से खिलवाड़ करने का अवसर दिया गया। प्रशासन को पता था कि यह जहरीली गैस है।जिनेवा कन्वेंशन में प्रतिबंधित गैस है।इसका निर्माण घनी आबादी वाले क्षेत्र में नही किया जा सकता।रहवासी क्षेत्र में इस कंपनी को निर्माण की अनुमति क्यों दी गई?
सुरक्षा और रखरखाव नहीं-
पूर्व की घटनाओं के बाद प्लांट के अंदर उचित रखरखाव और औद्योगिक सुरक्षा पर क्यों ध्यान नहीं दिया गया? भोपाल गैस लीक कांड अचानक से नहीं हुआ था। भयानक दुर्घटना के पहले अनेक छोटी-छोटी दुर्घटनाएं पिछले 3 वर्षों से हो रही थी ।जिस पर निर्माता कंपनी और प्रशासन ने औद्योगिक सुरक्षा,प्लांट रखरखाव का एवं अनेक संधारण के नियमों,दिशा निर्देशों का उलंघन किया। अवहेलना के कारण ही भीषण दुर्घटना हुई जो दुनिया की सबसे बड़ी औद्योगिक दुर्घटना का काला इतिहास रच गई।वरिष्ठ पत्रकार राजकुमार केसवानी का आलेख एक प्रतिष्ठित समाचार पत्र में 16 जून 1984 को प्रकाशित हुआ था।आर्टिकल के शीर्षक भोपाल ज्वालामुखी के मुहाने पर दिया था। आर्टिकल में पिछले अनेक वर्षों से होने वाली दुर्घटनाओं के बारे में उल्लेख किया गया था। 5 अक्टूबर 1982 के दिन भी यूनियन कार्बाइड संयंत्र में दुर्घटना हुई थी।टैंक का वाल्व खोलते समय ब्लास्ट हुआ मिथाइल आइसोसायनाइड गैस का उबलते हुए लावे की तरह रिसाव हुआ था।आसपास काम करने वाले चार लोग गंभीर रूप से घायल हुए थे। भगदड़ के कारण अनेक लोगों को शारीरिक चोटें आयीं।कई तो बिस्तर से भी नहीं उठ पाए।वर्ष 1983 में भी इस प्लांट में दो बार दुर्घटना हुई लेकिन प्लांट का मेंटेनेंस नहीं किया।सुरक्षा निर्देशों का विधिवत पालन नहीं किया।गैस प्लांट का डिजाइन त्रुटिपूर्ण था। उत्पादित मिथाइल आइसोसायनाइड गैस को अंडरग्राउंड टैंक्स में रखना था।टैंक के आयतन से आधा भरना था। छोटे-छोटे लोहे के टैंक में संधारण करना था।तापमान भी शून्य से 15 डिग्री सेल्सियस के बीच रखने के लिए कूलिंग सिस्टम भी ठीक से काम नहीं कर रहा था। टैंक का निर्माण स्टेनलेस स्टील टाइप 304 एवं 316 से नहीं हुआ।भंडारण के दिशा निर्देश का भी पालन विधिवत रूप से नहीं किया गया। मेंटेनेंस और प्रीवेंटिव मेंटिनेस का ध्यान नहीं रखा गया।
अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय के बाहर समझौता
लोगों ने अनेक गैस पीड़ित संगठन बनाकर अपने अधिकारों के लिए कानून की लड़ाई प्रारंभ की,दावे किए।जबलपुर, भोपाल,दिल्ली में केस किए गए। भारत सरकार ने यह अनुभव किया कि इतने सारे केस और प्रकरणों को ऐक्ट बनाकर पालक के रूप में लड़ना चाहिए। सरकार ने भोपाल गैस लीक डिजास्टर प्रोसेसिंग आफ क्लेम एक्ट 1985 बनाकर संसद से सर्वसम्मति से पारित किया गया।पीड़ितों के सारे अधिकार केंद्र सरकार ने ले लिए और बहुराष्ट्रीय कंपनी यूनियन कार्बाइड से लड़ने के लिए 3900 करोड रुपए के मुआवजे का दावा किया।किन्तु कोर्ट के बाहर सरकार ने समझौता कर मात्र 615 करोड रुपए में यूनियन कार्बाइड की सारी देनदारियां खत्म कर दी।सारे दीवानी फौजदारी मुकदमों से यूनियन कार्बाइड को मुक्त कर दिया।15 फरवरी 1989 को केंद्र की राजीव गांधी सरकार के समय यह समझौता हुआ।क्यों सरकार ने इतनी कम राशि पर समझौता कर लिया जबकि गैस पीड़ितों के लगभग 10 लाख से अधिक आपत्तियां थीं।जिनमें से मात्र साढे 5 लाख को ही स्वीकार किया गया। बाकी के समस्त दावे आपत्तियों को निरस्त कर दिया गया। यदि समझौता राशि और अधिक होती तो सभी पीड़ितों के दावों पर उनको अधिक मुआवजा मिल सकता था?
पर्यावरण नुकसान की भरपाई पर उदासीनता
हमारे पर्यावरण को जो नुकसान हुआ उसकी भरपाई भी हो सकती थी।20 हजार टन विषाक्त कचरे का निष्पादन भी अमरीकी कम्पनी यूनियन कार्बाइड से ही क्यों नहीं कराया गया?पाँच किलोमीटर के दायरे में भूजल प्रदूषण को स्वच्छ करने का उत्तरदायी भी यूनियन कार्बाइड नया नाम डाउ केमिकल को क्यों नहीं बनाया?
संसार की सबसे भयावह औद्योगिक तबाही में घोर लापरवाही हुई।हजारों लोगों के हत्यारे,इंग्लिश कानून अनुसार कार्पोरेट मेन स्लॉटर के मुख्य आरोपी वारेन एंडरसन को तत्कालीन कांग्रेस की राज्य सरकार और केंद्र सरकार ने अमेरिका क्यों भेजा? भारत के कानून के अनुसार दंडित क्यों नहीं किया ?यह प्रश्न आज भी जनमानस के मनो-मस्तिष्क में ज्वलंत हैं,विद्यमान हैं।