नई दिल्ली। वैश्विक ऊर्जा बाज़ार से आई हालिया रिपोर्ट ने अंतरराष्ट्रीय आर्थिक समीकरणों में हलचल मचा दी है। रिपोर्ट के मुताबिक़ भारत अब रूस से कच्चा तेल खरीदकर चीनी मुद्रा ‘युआन’ में भुगतान कर रहा है। यानी कि सौदा तेल का रूस से, भुगतान चीन की करेंसी में — यह कदम न केवल एक आर्थिक प्रयोग है, बल्कि अमेरिकी डॉलर के दशकों पुराने वर्चस्व को भी चुनौती देने जैसा है। हालांकि भारत के कुल तेल सौदों में युआन का हिस्सा अभी बहुत बड़ा नहीं है, लेकिन यह बदलाव भारत के भुगतान तंत्र में एक नई दिशा का संकेत देता है। इससे यह भी साफ़ होता है कि भारत, चीन और रूस ने बिना किसी ‘ब्रिक्स करेंसी’ के निर्माण के ही डॉलर प्रभुत्व को कमजोर करने की ठोस शुरुआत कर दी है। वर्तमान में एक युआन की कीमत लगभग ₹12.34 है। रूस के उप-प्रधानमंत्री अलेक्जेंडर नोवाक ने पुष्टि की है कि भारत फिलहाल अधिकांश भुगतान रूसी मुद्रा रूबल में ही करता है, लेकिन युआन में लेन-देन की हिस्सेदारी लगातार बढ़ रही है।
ट्रंप की चेतावनी और डॉलर की डिप्लोमेसी
भारत की इस पहल का संबंध अमेरिकी राजनीति से भी जोड़ा जा रहा है। पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति और अब 2024 चुनाव के बाद पुनः राष्ट्रपति बने डोनाल्ड ट्रंप ने नवंबर 2024 में चेतावनी दी थी कि अगर ब्रिक्स देश डॉलर के विकल्प की कोई नई मुद्रा बनाते हैं, तो अमेरिका इन देशों पर “100% टैरिफ” लगाएगा। ट्रंप की यह चेतावनी उनकी “America First” नीति का हिस्सा थी, जिसके तहत वे डॉलर की वैश्विक पकड़ को हर कीमत पर बनाए रखना चाहते हैं। फिलहाल डॉलर का वैश्विक व्यापार में हिस्सा करीब 58% है, लेकिन 2025 तक यह 73% से घटकर लगभग 54% तक सिमट चुका है।
डी-डॉलरीकरण की मुहिम
ब्रिक्स देशों की “डी-डॉलरीकरण” (De-dollarization) रणनीति डॉलर की इस प्रभुता को सीमित करने की कोशिश है। ये देश विश्व की 40% जीडीपी और लगभग 45% जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करते हैं। रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद अमेरिका ने रूस पर आर्थिक प्रतिबंध लगाए और उसे SWIFT पेमेंट सिस्टम से बाहर कर दिया। तब से ब्रिक्स देशों को महसूस हुआ कि डॉलर न केवल एक वैश्विक मुद्रा है, बल्कि एक भू-राजनीतिक हथियार भी बन चुका है।
ब्रिक्स करेंसी का ब्रेक, स्थानीय मुद्राओं पर फोकस
हालांकि ब्रिक्स देशों ने एक संयुक्त मुद्रा का विचार आगे बढ़ाने की कोशिश की थी, लेकिन ट्रंप की सख्त चेतावनी के बाद इस योजना को फिलहाल स्थगित कर दिया गया। दक्षिण अफ्रीका ने स्पष्ट किया कि ब्रिक्स की कोई साझा करेंसी बनाने की योजना नहीं है। इसके स्थान पर 2025 के रियो शिखर सम्मेलन में यह तय किया गया कि सदस्य देश स्थानीय मुद्राओं में व्यापार को बढ़ावा देंगे।अब “ब्रिक्स पे” नामक एक डिसेंट्रलाइज़्ड पेमेंट प्लेटफॉर्म विकसित किया जा रहा है, जो भविष्य में SWIFT सिस्टम का विकल्प बन सकता है। वर्तमान में ब्रिक्स देशों का लगभग 90% व्यापार स्थानीय मुद्राओं में हो रहा है, जबकि रूस-चीन व्यापार में युआन का हिस्सा 44% तक पहुँच चुका है।
भारत-चीन-रूस का ‘बीच का रास्ता’
भारत द्वारा रूसी तेल के लिए युआन में भुगतान, एक व्यावहारिक रास्ता भी है और एक रणनीतिक संदेश भी इससे भारत को रूसी तेल सस्ते में मिलता है, और डॉलर-आधारित प्रतिबंधों से भी बचाव होता है। यह एक ऐसा “पहला चरण” है जिसमें बिना किसी ब्रिक्स मुद्रा के ही नई बहुध्रुवीय आर्थिक व्यवस्था आकार ले रही है। सितंबर 2025 में भारत ने रूस से तेल आयात पर लगभग 2.5 बिलियन यूरो खर्च किए, जो पिछले महीने की तुलना में 14% कम है। यानी भारत अभी भी संतुलित रुख बनाए हुए है — लेकिन दिशा स्पष्ट है: डॉलर के विकल्प की तलाश।